क्या आध्यात्म और संसार में संतुलन संभव है?

 



क्या आध्यात्म और संसार में संतुलन संभव है?


अध्यात्म मनुष्य को स्थायी आंतरिक आनंद प्रदान करता है। हमारी आवश्यकता से सांसारिक होना आध्यात्मिक आनंद की अनुभूति में एक बड़ा अवरोध है। सांसारिकता में घिरे रहने से हमारे इस लोक और परलोक दोनों बिगड़ सकते हैं। सांसारिकता मनुष्य को पूर्णतः भौतिकवादी बना देती है। हालांकि ऐसी आशंकाएं भी व्यक्त की जाती हैं कि आध्यात्मिकता पर ज्यादा जोर देने से सांसारिक व्यवहारों में परेशानियां उत्पन्न हो सकती हैं, पर बुद्धिमान व्यक्ति को इसमें कोई कठिनाई नहीं आती।
आध्याात्मिक होने का अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ ले। उसे अपने कर्तव्यों का पालन और जिम्मेदारियों का निर्वाहन करते हुए आध्यात्मिक आनंद की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। हम कितना भी ज्ञान प्राप्त कर लें पर जब तक हमें उन नियमों का ज्ञान नहीं है, जो मनुष्य के मनोवेग, भावनाओं और इच्छाओं पर नियंत्रण करते हैं तब तक हमारा ज्ञान अधूरा ही है। 
मनुष्य को बाहरी वस्तुओं में ज्यादा आनंद मिलता है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो इन सबसे ऊपर उठकर सूक्ष्मतर तत्वों की प्राप्ति के लिए सतत प्रयत्नशील रहते हैं। कुछ लोगों को भोजन में आनंद मिलता है, किसी को सुंदर वस्त्रों में आनंद मिलता है तो कुछ किसी संपत्ति के स्वामित्व में सुख का अनुभव करते हैं। इन सबसे हटकर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिन्हें आध्यात्मिक चिंतन में ही परम आनंद की अनुभूति होती है। 

मनुष्य आध्यात्मिकता के सागर में जितना गहरा उतरेगा, उसे उतने ही सुख के सीप प्राप्त होंगे।

मनुष्य भौतिक सुखों की प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहता है। इसके लिए वह नैतिक-अनैतिक की भी परवाह नहीं करता। उसका एक ही लक्ष्य होता है कि अधिक से अधिक भौतिक सुखों को प्राप्त कैसे करे। इसके विपरीत आनंद, जो कि जीवन का असली आनंद है, उसकी प्राप्ति के लिए वह इतना गंभीर नहीं होता है। वह स्थायी सुख से क्षणिक सुख को ज्यादा महत्व देता है। जबकि अध्यात्म की नौका पर सवार होकर ही मनुष्य संसार सागर से सफलतापूर्वक पार उतर सकता है। ईश्वर ने मनुष्य को ही आध्यात्मिक आनंद का सुख प्रदान किया है। इस लिए मनुष्य को आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर होकर अपने जीवन को सफल बनाने का प्रयास करना चाहिए।

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