क्या जीवन में वैराग्य जरूरी है?

 


क्या जीवन में वैराग्य जरूरी है?

अध्यात्म और वैराग्य दोनों ही एक दूसरे से भिन्न हैं। अध्यात्म का तात्पर्य ईश्वर को पाने के लिए साधना करने से है। जबकि वैराग्य का तात्पर्य सांसारिक मोह-माया के त्याग से है। वैराग्य धारण करने वाले व्यक्ति की धारणा होती है कि यदि वह संसार का त्याग कर देते हैं, तो ईश्वर की प्राप्ति हो जाएगी। लेकिन यह संभव नहीं है। जबकि अध्यात्म के लिए हमें अपने विकारों को त्यागने की जरूरत है, संसार को त्यागने की नहीं। तमाम ऐसे लोग संसार में होते हैं जो स्वयं को बैरागी बताते हैं। ऐसे लोग अक्सर संसार को त्यागने की बातें करते रहते हैं और संसार में दोष निकालते रहते हैं। उनको हर समय यह चिंता सताती रहती है कि कहीं सांसारिक वस्तुएं उन्हें आकर्षित न कर लें। इसलिए वे उनसे भागते रहते हैं।

यदि आप किसी वस्तु के नियंत्रण में नहीं हैं, आपने संसार की सुख-सुविधा को त्याग दिया है और आप विकारों का त्याग कर चुके हैं, तो वह वस्तु आप को कैसे अपनी ओर आकर्षित कर सकती है? जो मनुष्य इस संसार से भागकर साधना करने का प्रयास करता है, वह बेहद कमजोर साधक होता है। जो संसार में रहकर ही साधना करते हैं उनका कभी पतन नहीं होता। हमारे जीवन रूपी चक्र में तीन गुणों की प्रधानता होती है - सत्वो गुण, रजो गुण और तमो गुण। जब सत्वो गुण आता है तो हर कार्य में सतर्कता, ज्ञान, रूचि और आनंद बढ़ता है। जब रजोगुण आता है तो हमारे भीतर की इच्छा, स्वार्थ, बैचेनी और दुख का उदय होता है। जब तमो गुण आता है तो उसके साथ भ्रांति, आसक्ति, अज्ञान और आलस्य आता हैं। यदि आप आत्म-ज्ञान से परिपूर्ण हो चुके हैं, तो आपको किसी भी प्रकार का प्रलोभन अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाएगा, क्योंकि एकाग्रचित होना ही योग का मुख्य उद्देश्य है। यही वैराग्य है।

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