क्या संन्यास की राह में गृहस्थ जीवन बाधक है?

 



क्या संन्यास की राह में गृहस्थ जीवन बाधक है?

प्रत्येक आत्माधारी जीव का मूल स्वभाव ही अध्यात्म है। अपनी आत्मा के प्रति जागरूक होने की जिज्ञासा हर जीव में जन्म-जन्मान्तर तक रहती है। जिसके कारण काल चक्र की यात्रा पूरी करने के क्रम में अंतिम जागृत होना स्वाभाविक है। अतः स्वभाव से आध्यात्मिक होने के लिए सांसारिक गतिविधियों, क्रियाकलापों आदि से संन्यास लेने का कोई नियम नहीं है। ब्रह्माण्ड में जीवन के रहस्य को समझने का एकमात्र मार्ग अध्यात्म ही है। इस मार्ग पर चलने के लिए स्वयं का भाव ही पर्याप्त है। आगे का मार्ग परमात्मा की कृपा से स्वयं प्रकाशित होता चला जाता है।

निसंदेह अध्यात्मिक उपलब्धि का अंतिम पड़ाव संन्यास जरूर है लेकिन उस पड़ाव तक पहुंचने के काबिल बनने के लिए हमें ज्ञानेन्द्रियों (जीभ, नाक, कान, आंख और त्वचा) और कर्मेन्द्रियों (हाथ, पैर, लिंग, गुदा, वाणी) को उनके विषयों से विमुख करने का अभ्यास होना आवश्यक है। जो कि भौतिक जीवन के विषयों के साथ रहते हुए ही कर पाना संभव है। क्योंकि जब विषयों से सामना होगा, तभी उनसे दूरी बनाने का अभ्यास करना संभव होगा।

इसके लिए आध्यात्मिक होने की शुरुआत शरीर का बोध होने के क्रम में ही होने लगता है। आज समाज की व्यवस्था बदल चुकी है। वैदिक काल में गृहस्थ आश्रम में प्रवेश से पहले ब्रह्मचर्य आश्रम का रिवाज़ था। इस आश्रम में ब्रह्म (आत्मा) के अनुकूल आचरण का पालन करने की शिक्षा दी जाती थी।

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